(टूटते रिश्तो की अहमियत)

(टूटते रिश्तो की अहमियत)

कहानी की शुरुआत होती है एक ऐसे लड़के से, जिसने बचपन से जवानी तक अपनी हर ख्वाहिश पूरी की — लेकिन उसी रास्ते में अपने रिश्तों की ख्वाहिशें खो बैठा।

महविश ख़ान का जन्म हुआ तो पूरे घर में जैसे ईद का सा माहौल बन गया।
अफ़ज़ल ख़ान और समीरा बेग़म के खानदान का ये पहला लड़का था। इसीलिए एकलौता होने के नाते महविश की हर छोटी-बड़ी चाहत उसके वालिद फ़ौरन पूरी कर देते।

खिलौनों से लेकर बड़े-बड़े मोबाइल फोन तक, जो माँगा, वो मिल गया।
लेकिन वक़्त गुज़रता गया… और साथ-साथ महविश की ख्वाहिशें भी बढ़ती चली गईं।

अब वो 15 साल का हो चुका था। मगर उसकी आदतें वैसी की वैसी थीं — जो चाहा, वो चाहिए ही था।
उसके लिए ना कहने का कोई मतलब ही नहीं था।
पर इसी सब में कहीं न कहीं, वो रिश्तों की अहमियत भूलता चला गया…

ज़िंदगी उसी रफ्तार से चलती रही — ख्वाहिशें पूरी होती रहीं, लेकिन दिल का सूनापन बढ़ता गया।

अफ़ज़ल ख़ान अब बूढ़े हो चुके थे।
जिन हाथों से कभी महविश की हर ज़िद पूरी होती थी, आज वो हाथ कांपते थे।
समीरा बेग़म की आँखें अब बेटे की एक झलक को तरसने लगी थीं,
क्योंकि महविश अब बड़ा हो चुका था — और अपनी ही दुनिया में खो गया था।

कॉलेज, दोस्तों, गाड़ियाँ, शौक़ — हर चीज़ मिल रही थी,
पर जब भी घर लौटता, घर की दीवारें ख़ामोश होतीं।
ना अब्बा कुछ कहते, ना अम्मी कोई सवाल करतीं।
बस उनकी आँखों में एक ग़ैर कही हुई शिकायत होती।

फिर एक दिन...

अम्मी बहुत बीमार पड़ीं।
महविश उस वक़्त किसी पार्टी में था,
फोन आया — "माँ की तबीयत बहुत खराब है, जल्दी आओ।"

वो भागता हुआ पहुँचा,
अम्मी आईसीयू में थीं, और अब्बा बाहर बैठकर तस्बीह फेर रहे थे,
उनके हाथ काँप रहे थे, आँखें नम थीं।

महविश को पहली बार लगा —
कि ज़िंदगी में सबसे क़ीमती चीज़ें वो होती हैं, जो पैसे से नहीं मिलतीं…
रिश्ते, मोहब्बत, और अपनों की दुआए

आईसीयू की ठंडी दीवारों के बीच महविश पहली बार बेबस महसूस कर रहा था।
हर बार कुछ चाहा — मिल गया,
लेकिन आज... माँ की ज़िंदगी उसके हाथों से फिसलती जा रही थी,
और वो कुछ नहीं कर पा रहा था।

डॉक्टर बाहर आए, सिर हल्के से झुकाया —
"हमने पूरी कोशिश की... लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है।"

वो पल जैसे थम गया।
महविश के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
उसकी आँखों के सामने माँ की सारी यादें घूमने लगीं —
वो थाली में खाना परोसती माँ,
हर बुखार में माथे पर हाथ रखती माँ,
रात भर उसके लिए जागती माँ…

और उसने क्या दिया?

एक इग्नोर किया हुआ फ़ोन कॉल।
एक अधूरी मुलाक़ात।
एक बार भी "माँ, तुम कैसी हो?" न पूछना।

अफ़ज़ल ख़ान ने बेटे के कंधे पर हाथ रखा,
आँखों में आँसू थे, लेकिन आवाज़ में सब्र —
"बेटा… कुछ चीज़ें जब खो जाती हैं, तब समझ में आता है कि वो कितनी क़ीमती थीं।"

उस दिन महविश ने पहली बार ख्वाहिश नहीं की,
उसने पहली बार कुछ महसूस किया।

और यही उसकी असली तालीम थी।

माँ की मौत ने महविश की ज़िंदगी बदल दी।
अब हर सुबह एक खालीपन के साथ शुरू होती थी —
पर उस खालीपन में एक नयी समझ भी थी।

वो अब्बा के पास ज़्यादा वक़्त बिताने लगा।
पहली बार उनकी आँखों में झाँका — और उम्र भर का इंतज़ार देखा।
उनकी खामोशियों को समझने की कोशिश की,
उनकी दुआओं में शामिल होने लगा।

कॉलेज से आने के बाद सीधे अपने कमरे में नहीं जाता,
अब्बा के पास बैठता, हालचाल पूछता।
कभी उन्हें पार्क घुमाने ले जाता,
कभी पुरानी बातें सुनता — जो पहले कभी सुनने का वक़्त नहीं निकाला।

वो दोस्तों से मिलना कम नहीं करता,
पर अब हर शाम घर लौट आता है,
क्योंकि अब वो जानता है —
कुछ रिश्ते वक़्त नहीं माँगते, सिर्फ़ मौजूदगी माँगते हैं।

एक दिन उसने अपने अब्बा से कहा —
"अम्मी के जाने के बाद बहुत कुछ समझ में आया अब्बा…
मैं चाहता हूँ आप मुझसे सिर्फ़ बेटे की तरह नहीं, दोस्त की तरह भी बात करें।"

अफ़ज़ल ख़ान की आँखें भर आईं,
मगर चेहरा मुस्कराया —
"देर से सही बेटा, लेकिन तूने रास्ता सही पकड़ा है।"

और यहीं से शुरू होती है महविश की अधूरी ज़िंदगी को मुकम्मल बनाने की कोशिश।
वो अब भी सपने देखता है,
लेकिन अब उन सपनों में अपनों की जगह सबसे पहले होती है।
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